कबीरी अबीर

रमिया का बापू छिद्दमी धीमर होली की पहली दिन की शाम को काफी चिन्तित हो उठा।  चिन्ता का कोई ख़ास कारण न था पर उसने सोलहवें वर्ष में पैर रख रही रमिया को पड़ोस के हलवाई नथ्थ्न के मझले लड़के सुखविन्दर के साथ हँसते बोलते देख लिया था। यों कभी -कभी पड़ोसी होने के नाते रमिया और सुखविन्दर छोटी -मोटी बातें कर लिया करते थे पर उस शाम हंसी  ठिठोली का जो नजारा छिद्दमी नें देखा उससे उसका मन शंका से भर गया। पर क्या किया जाय कोई ख़ास बात तो थी नहीं होली के एक दो दिन आगे पीछे हँसी ठिठोली का माहौल होता ही है। रंग ,गुलाल ,और अबीर लगा लेने की छूट भी हिन्दू समाज के एक बड़े वर्ग नें दे राखी है। त्यौहार के इस सन्दर्भ में रमिया और सुखविन्दर की हँसी ठिठौली को गलत अर्थों में लेना छिदम्मी को उचित नहीं लगा। पर न जाने क्यों छिद्दमी को लगा कि रमिया की हँसी और मुस्कान के कुछ नये अन्दाज हैं और उनसे कुछ नये अर्थ लगाये जा सकते हैं। उसने सोचा कि रमिया की माँ से बात करके सावधान रहने की कोई तजबीज बनानी पड़ेगी पर कुछ मिलने वालों के आ जाने के कारण यह बात उसके दिमाग से उतर गयी और इस बात चीत को सहज भाव से लेकर अपने काम काज लग गया ।  छिद्दमी के मन से तो यह बात उतर गयी पर उस हँसी  ठिठौली नें रमिया और सुखविन्दर को सोच विचार की चक्कर दार भँवर में फँसा दिया। रमिया सुन्दर है और जवान है ,सुखविन्दर कमेरा है और तरुण है यह बात तो सभी जानते थे पर उभरती तरुणाई के तूफानी दौर में उभरती भावनाओं की उथल- पुथल का पहला अहसास रमिया और सुखविन्दर को बहुत सुखद महसूस हुआ। बातचीत की इतनी मिठास और होली के सुहावन मौसम की मादक मस्ती रमिया और सुखविंदर को चकरा गयी। अब क्या किया जाये रमिया के गालों पर गुलाल कैसे लग पाये और रमिया की पिचकारी प्यार की लाल छींटें सुखविन्दरके कपड़ों पर कैसे डाल पाये। मन के भीतर योजनायें बनने लग गयीं। पर सुखविन्दर का बाप नथ्थ्न हलवाई अपने खुंखार थोबड़े के लिये मशहूर था और छिद्दम्मी धीमर की लाठी न जाने कितनी बार अपना रंग दिखा चुकी थी। जाति गत विषमता मैत्री सम्बन्धों को आगे बढ़ाने में बाधक बन रही थी पर शरीर की लस  लहरियाँ मनों पर लगाम नहीं कसनें दे रहीं थीं। इसी दौरान एक घटना घाट गयी ।